पेटेंट रणनीति : जीवन रक्षक दवाएं
भारतीय पेटेंट कार्यालय ने पिछले महीने Prevenar 13 के लिए Pfizer को पेटेंट की मंजूरी दे दी है, जो भारत के अन्दर 2026 तक वैक्सीन को वितरित करने के लिए विशेष अधिकार देता है और भारतीय निर्माताओं को निर्यात के लिए जीवन रक्षक टीके का Generic संस्करण बनाने से रोकता है।
सन 2005 से पहले, भारत में दवाओं पर प्रोडक्ट पेटेंट प्रदान नहीं किया जाता था – जिस वजह से जेनेरिक ड्रग मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री को बढ़ावा मिला, जो दुनिया भर में एचआईवी / एड्स, मलेरिया और टीबी जैसे रोगों का इलाज करने के लिए दवाओं का निर्यात करता हैं ।
यही कारण है कि अमेरिका और यूरोप की बड़ी दवा कंपनियां, दक्षिण एशियाई देश पर पेटेंट कानूनों को लेकर हमेशा सवाल उठाती रही हैं और दलील देती रही हैं कि पेटेंट की सुरक्षा आगे शोध करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
विश्व व्यापार संगठन के समझौतों पर हस्ताक्षर करने के पश्चात, भारत ने बौद्धिक संपदा के निजी स्वामित्व को पहचानना शुरू किया – जिसमें दवा उत्पाद शामिल थे।
भारत में पेटेंट विषय पर शोध एवं सलाह प्रदाता कंपनी Siddhast IP Innovation के COO श्री रोशन अग्रवाल जी के अनुसार “अमेरिका भारत जैसे देशों पर व्यापार दबाव का उपयोग कर रहा है। उनके द्विपक्षीय मंच मानव जीवन पर प्रभाव के बावजूद , बौद्धिक संपदा की रक्षा की आवश्यकता को लगातार दोहराते हैं । ट्रम्प प्रशासन ने जेनेरिक ड्रग मैन्युफैक्चरिंग के बारे में भारत पर दबाव डालने की शुरुआत की है। नया ट्रम्प प्रशासन बौद्धिक संपदा और व्यापार के बारे में बहुत मजबूत विचार रखता है, और इसने अमेरिका ,चीन और भारत जैसे अन्य महाशक्तियों के बीच घर्षण की मात्रा पैदा की है | हम इस फैसले के पीछे छुपी अँधेरी वास्तविकता से अवगत हैं। यह सिर्फ एक उध्योग के बारे में नहीं है – यह मरीजों की जिंदगी या मृत्यु के बारे में है | मानव अधिकार के रूप में स्वास्थ्य के अधिकार को पहचानने की आवश्यकता है | भारत में निमोनिया से ग्रसित लोगो की संख्या बहुत अधिक है | सरकार का यह कदम अगर पेटेंट अधिनियम के अंतर्गत आने वाले Compulsary License को मिला कर देखें तो यह नवाचार को जरूर बढावा दे रहा है , लेकिन दूसरी तरफ आज भी भारत में ७५ % से अधिक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश में पेटेंट ले रही हैं जो यही दर्शाता है कि भारत कि आज़ादी के ७० वर्ष बाद भी भारत कि अर्थव्यवस्था पर आज भी विदेशी नागरिकों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा है जिसमे प्रमुख वजह यह है की भारत में स्वदेशी कंपनियों को पेटेंट के विषय में बहुत कम जानकारी है एवं भारतीय भाषाओँ में पेटेंट आवेदन ना के बराबर हैं |”
मेडिसिन सेन्स फ्रंटियरर्स (एमएसएफ) की रिपोर्ट के मुताबिक 2005 में, भारत में एड्स के उपचार में आने वाली कुछ जेनेरिक दवाइयों की लागत 10,000 अमेरिकी डॉलर से गिरकर लगभग $ 200 तक रह गयी है ।रिपोर्ट में यह भी कहा गया है: “दुनिया भर के बीमार लोग नई दवाओं के किफायती जेनेरिक संस्करणों के निर्माण के लिए भारतीय उत्पादकों पर निर्भर हैं।”
लेकिन बड़ी संख्या में दवाइयां और टीके अब भारत में पेटेंट हो रहे हैं – इसलिए अगले दशक या दो दशकों के भीतर भारत में जेनेरिक कंपनियां जीवन-रक्षक दवाओं का उत्पादन नहीं कर पाएंगी ।